अष्टावक्र गीता-दोहे -15

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*अष्टावक्र गीता*-15 स्वांत वात-बल पोत जग,फिरे सतत चहुँ-ओर। महा सिंधु मम रूप में,कहे जनक, बिन शोर।। उदित-अस्त होतीं स्वयं,माया-विश्व-तरंग। लाभ-हानि बिन सिंधु मैं, उमड़ूँ लिए उमंग।। मुझ अनंत इस सिंधु में,जग ...

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